“मुझे भूल जाना अगर हो सके, ना फिर याद आना अगर हो सके…”, सुबह-सुबह आफिस रवाना होते वक्त कार के स्टीरियो में फिल्म “तकदीर” के लिए आनंद बख़्शी के लिखे और शहंशाह-ए-तरन्नुम “मोहम्मद रफ़ी साहब” के बेहद दर्द भरे इस नगमे का मुखड़ा जैसे ही सुना तो दिमाग़ में तुरंत ही “फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम, ऐ सनम, हम न भूलेंगे तुम्हें अल्लाह क़सम…” गीत याद आ गया।
तुझे भूल जाऊं ये मुमकिन नहीं है, ये सच है कि “तेरे पास आ के मेरा वक़्त गुजर जाता है…” क्योंकि, “मुझे इश्क़ है तुझी से…”।
ऐ स्वर सम्राट, आपने मख़मली अपनी आवाज़ के जरिये से देश-दुनिया को इतना कुछ दिया है, इसके बावजूद ये दुनिया क्या वाकई, इतनी आसानी से आपको भुला पाएगी ?
नहीं, कभी नहीं। ये तो नामुमकिन है, क्योंकि,
“हुई शाम उनका ख़्याल आ गया…” और
“वो जब याद आए, बहुत याद आए…”।
इसलिए “तुझे प्यार करते हैं, करते रहेंगे…”
तभी ऐसा महसूस हुआ कि हरदिल अज़ीज़ मोहम्मद रफ़ी साहब तो खुद हमारे साथ ही आसपास हैं और कह रहे हैं मोहम्मद निसार, “तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग-संग तुम भी गुन-गुनाओगे…”।
दिल ने उनसे कहा रफ़ी साहब “पास बैठो तबियत बहल जाऐगी…”, क्योंकि हक़ीक़त तो ये है कि, “सुबह न आई, शाम न आई, जिस दिन तेरी याद न आई…”।
अब तक “तक़दीर” का वो गीत पूरा हो चुका था, सो हमने उसे रिपीट किया।
आगे के बोल थे, “मुझे माफ़ करना मेरे हमसफ़र, कहीं खो गया मैं तुम्हें छोड़कर, तुम्हें मैंने आंसू दिए हैं मगर सदा मुस्कराना अगर हो सके…”।
हमने उनसे पलटकर सवाल किया, “आये बहार बनके, लुभाकर चले गए, क्या राज़ था जो दिल में छुपाकर चले गए…” ?
तो कुछ भारी मन से कहने लगे कि,
“आदमी मुसाफिर है, आता है जाता है,
आते जाते रस्ते में यादें छोड़ जाता है…”।
हमने कहा, “एक तेरा साथ हमको दो जहां से प्यारा है, तू है तो हर सहारा है…” इसलिये,
“ओ दूर के मुसाफिर, हमको भी साथ ले ले…”।
उनका “दर्दे दिल दर्दे जिगर…” का पैमाना छलक कर जुबां पर आ गया। उदास मन से कहने लगे,
“ना मैं चाँद हूँ किसी शाम का, ना चिराग हूँ किसी बाम का…” इसलिए,
“आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले, कल तेरी बज़्म से दीवाना चला जाएगा…”।
“अजी रूठकर कहां जाईयेगा…” सो अंदर से आवाज़ आई, “कहां चल दिये…”, “अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं…”।
जवाब में उनका कहना था, “जब हम न होंगे तब हमारी ख़ाक़ पे तुम रुकोगे चलते चलते…”,
“ये जिंदगी के मेले दुनिया में कम न होंगे, अफसोस हम न होंगे…”, क्योंकि,
“है बहारे बाग़ ए दुनिया चंद रोज, चंद रोज…”।
उनकी जुदाई भरी बातें सुनकर आंखें बह निकलीं, हमने कहा, “ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं…” इसलिए,
“ले जा मेरी दुआएँ ले जा, परदेस जाने वाले…”,
“चले जा, चले जा, चले जा, जहां प्यार मिले…”।
वे दुनियां-जहान का दर्द अपनी आवाज़ में पिरोकर बोले, “तेरी दुनिया से दूर, चले हो के मजबूर, हमें याद रखना…”।
हमने कहा, “तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है, जहाँ भी जाऊं ये लगता है तेरी महफ़िल है…”।
जब वे सचमुच में जाने लगे तो हमने कहा “मुझको अपने गले लगा लो, ऐ मेरे हमराही…”, “मुझे गले से लगा लो, बहुत उदास हूं मैं…”।
तो बड़े ख़ुलूस-ओ-मोहब्बत से बोले, “आ गले लग जा मेरे सपने, मेरे अपने, मेरे पास आ…”।
गुफ़्तुगू होते-होते हमारा आफिस आ चुका था सो मोहम्मद रफ़ी साहब कहने लगे, “जाता हूँ मैं, मुझे अब ना बुलाना, मेरी याद भी अपने दिल में न लाना…”।
अपना दिल भी कहां मानने वाला था सो बोल उठा, “फिर मिलोगे कभी इस बात का वादा कर लो, हमसे एक और मुलाकात का वादा कर लो…”।
लेकिन वो अब मानने को तैयार न थे।
आखिरकार बुझे मन से हमें कहना पड़ा, “हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा…”, “चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना…”।
“अल्लाह तेरे साथ है, मौला तेरे साथ है, जान ए तमन्ना अलविदा…”।

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Mohd Nisar