आइये आज आपको अविभाजित भारत के ऐतिहासिक ‘मंटो पार्क लाहौर’ लिऐ चलते हैं, जहां मौसिकी की दुनिया में “मोहम्मद रफ़ी” नाम का एक ऐसा आफ़ताब ज़लवा अफ़रोज़ होने जा रहा है जिसकी मख़मली आवाज़ का जलवा रहती दुनिया तक रहने वाला है।
इस ऐतिहासिक दिन की तारीख है 25 दिसंबर, सन् 1937 और दिन है शनिवार।
लाहौर शहर में आज सुबह से ही चारों तरफ जबरदस्त हलचल नजर आ रही है। सब तरफ बैनर, पोस्टर लगे हुए हैं। सबका रुख शहर के मशहूर मंटो पार्क की तरफ है।
हो भी क्यों न !
आज हिंदुस्तान के नामी-गिरामी सिंगर-एक्टर ‘कुंदनलाल सहगल’ आल इंडिया एक्ज़ीबीशन के तहत “व्य्हेरायटी थियेटर कलकत्ता” के बैनर तले अपना जलवा बिखेरने के लिए लाहौर जो आ रहे हैं।
आज की महफिल में एक से बढ़कर एक मशहूर सितारों के साथ बनारस की सिध्देश्वरी बाई, ज़ोहराबाई अंबालेवाली और दिलीप चन्द बेदी भी अपना ज़लवा बिखेरने आ रहे हैं।
मैदान में चारों तरफ से संगीत प्रेमियों का सैलाब सा उमड़ रहा है।
कई एकड़ों में फैला मंटो पार्क पूरी तरह से फुल हो चुका है। आगे की सफ़ में हिंदोस्तां के नामी-गिरामी हस्तियां भी तशरीफ़ फरमां होकर महफिल की शान बढ़ा रही हैं। मैदान में अब तो पैर रखने की भी जगह नहीं बची है।
भीड़ के साथ एक कोने में बैठे 13 साल के बालक सहगल जैसा सिंगर बनने की हसरत लिये ‘फ़ीको’ भी अपने बड़े भाई दीन मोहम्मद और उनके अज़ीज़ दोस्त हमीद भाई के साथ अपने फेवोरिट ‘सहगल साहब’ को सुनने के लिए बड़े बेताब हैं।
शाम के तकरीबन 4:30 बज रहे हैं। सहगल साहब ने मंच पर पहुंच कर अपनी मधुर तान छेड़ दी है, समां बंध चुका है। मंत्रमुग्ध होकर सभी सहगल साहब की मधुर आवाज़ का लुत्फ़ उठा रहे हैं।
“अचानक, ये क्या हुआ ! शायद बिजली गुल हो गई है।”
लाउडस्पीकर बंद हो जाने की वजह से मजमे में मौजूद लोग सहगल साहब को ठीक से सुन नहीं पा रहे हैं। भीड़ कुछ हंगामा करने लगी है इस वजह से लोगों में बेचैनी की आलम है। शोरोगुल मेंं कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है।
सहगल साहब का मूड भी खराब हो चुका है, इस शोरगुल मेंं उन्होंने गाने से साफ इंकार कर दिया है।
इस अफरातफरी और हंगामे के बीच ‘हमीद भाई और दीन मोहम्मद’ की आंखों मेंं एक चमक उभर आई है। आंखों ही आंखों में दोनों का इशारा होता है, “यही सुनहरा मौका है, अभी नहीं तो कभी नहीं।”
मौसिकी के दीवाने फ़ीको कुछ समझ पाते इससे पहले ही उनका हाथ पकड़कर दोनों मंच के पास पहुंचते हैं।
हमीद भाई और दीन मोहम्मद, हालात से परेशान आयोजकों से फ़ीको को एक मौका देने की सिफारिश करते हैं।
फ़ीको इसके पहले लाहौर के रेडियो स्टेशन के अलावा रसूखदार लोगों की महफिलों में अपना रंग जमा चुके हैं।
हलांकि इतनी जबरदस्त भीड़ और हंगामे के बीच 13 साल का ये मासूम सा लड़का, क्या वाकई इतनी बड़ी महफिल को सम्हाल पाऐगा ?
ये एक बहुत बड़ा सवाल है।
आयोजकों को बिल्कुल भी भरोसा नहीं, फिर भी “मरता क्या न करता”, उनके पास कोई चारा भी तो नहीं है।
‘बालक फ़ीको’ मंच पर पहुंचते हैं और अपने दोनों हाथ कानों पर लगाते हुए परवरदिगार ए आलम का शुक़्र अदा करने के बाद एक पंजाबी लोकगीत गाना शुरू करते हैं।
न कोई माइक्रोफोन है और न कोई लाऊडस्पीकर, फिर भी फ़ीको के ‘ऊंचे सुर’ चारों तरफ तैरने लगे हैं। उनकी आवाज़ का जादू छाने लगा है। पब्लिक में ख़ामोशी तारी हो चुकी है। समां फिर से बंध चुका है। खामोशी के साथ सभी उस नन्हें रफ़ी को मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे हैं। फ़ीको की आवाज़ का जादू कुछ ऐसा सर चढकर बोल रहा है कि महफिल मेंं सभी बंंध से गए हैं।
कुदरत फ़ीको पर पूरी तरह मेहरबान हो चुकी है।
एक के बाद दूसरा गीत। फ़ीको ने इस मौके का भरपूर फायदा उठाया है। सारा माहौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा है।
मौसिकी के आफ़ताब की रौश़नी फैलने लगी है।
कुंदनलाल सहगल और ज़ोहराबाई अंबालेवाली भी अचंभित हैं ! अवाक् हैं ! हैरान हैं !
सहगल साहब अपनी जगह से उठते हैं। ‘नन्हें रफ़ी’ के सिर पर प्यार से हाथ रखकर शाबाशी देते हुए दुआऐं देते हैं, “बेटा, तुम एक दिन बहुत बड़े गायक बनोगे।”
सहगल साहब की बात अक्षरशः सही साबित हो चुकी है। इतिहास गवाह है, मोहम्मद रफ़ी न केवल हिंदुस्तान बल्कि दुनिया के सबसे लोकप्रिय सिंगर साबित हुए। दुनिया उन्हें “शहंशाह-ए-तरन्नुम और स्वर सम्राट” के खिताब से नवाजती है।
आज रफ़ी साहब के इन्तिक़ाल के 39 साल के बड़े अरसे के बावजूद उनकी तरोताज़ा आवाज़ पूरी दुनिया में वैसे ही गूंज रही है जैसे कल की ही बात हो और इंशाअल्लाह, ये मख़मली आवाज़ यूं ही इसी तरह गूंजती रहेगी ता-कयामत तक।

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Mohd Nisar